फ़टते ग्लेशियर प्रकृति से छेड़छाड़

 



चमोली में ग्लेशियर फटने की आपदा की तुलना अगर हम केदारनाथ में जून 2013 में घटित आपदा से करें, तो यह छोटी आपदा है। एक दो घंटे तक जल का जो स्तर था, वह ऋषिकेश और हरिद्वार तक आते-आते लगभग सामान्य हो गया था। केदारनाथ वाली आपदा की वजह एक ग्लेशियर झील के फटने से आई बाढ़ थी, तब ऐसा बहुत ज्यादा वर्षा होने के चलते हुआ था। यह जो ताजा आपदा है, उसकी जांच जारी है। पता लगा है, जो रैनी गांव है, उसके ऊपर जो रैनी ग्लेशियर है, उसके पास ही एक लटकता हुआ ग्लेशियर था, लगभग 0-2 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का। वही ग्लेशियर टूटा है और लगभग दो किलोमीटर सीधा नीचे रैनी ग्लेशियर पर गिरा है और वहां से त्रसदी शुरू हुई है। वैसे इस आकार के ग्लेशियर का फटना आम तौर पर होता रहता है, ज्यादातर ऐसे मामले सैटेलाइट इमेज में ही पता चलते हैं। ताजा त्रसदी इसलिए प्रकाश में आई, क्योंकि मानव बस्ती इसकी राह में आ गई। जाड़े के मौसम में भी ग्लेशियर का टूटना चिंता वाली बात हो सकती है, इसकी और पड़ताल चल रही है। ताजा आपदा के अनेक कारण हो सकते हैं। एक कारण, उस क्षेत्र में 1 फरवरी के आसपास बर्फबारी हुई थी, उसके बाद सैटेलाइट इमेज में वहां दरार या टूट दिखी थी। हम जानते हैं, ग्लोबल वार्मिंग की वजह से बर्फ का तापमान बढ़ा है। जब बर्फ गिरती है, तो वह जल्दी पिघल जाती है। इसका पानी जब ग्लेशियर की दरारों में पहुंचता है, तो आपदा की आशंका पैदा होती है। इस बार शायद ऐसा ही हुआ, पानी दरारों में पहुंचा और उसने ग्लेशियर को तोड़ दिया। इसके अलावा दूसरे कारण भी हो सकते हैं।

आमतौर पर ऐसा होता है, ग्लेशियर पर कहीं बर्फ गिरती रहती है और एक वक्त आता है, जब उसका कोई हिस्सा टूट जाता है। शायद इसी प्रक्रिया की वजह से यह आपदा घटित हुई हो। जो हिस्सा टूटा है, वह छोटा है, ऐसा संभव है कि जब उस ऊंचाई पर फिर से बर्फ गिरे, तब ग्लेशियर का टूटा हुआ हिस्सा वापस बन जाए। हालांकि, उस इलाके की भौगोलिक स्थिति भी मायने रऽेगी कि वहां फिर ग्लेशियर बनने की क्षमता है या नहीं, वहां ढलान है या ऐसी कोई जगह है, जहां बर्फ ठहर सके? क्या ग्लेशियर पिघलने से गंगा और अन्य नदियों पर खतरा है? पिछले दशकों में तेजी से जलवायु परिवर्तन हुआ है। हिमालय के ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं। जो ग्लेशियर पहले स्थिर थे, अब वे अस्थिर हो रहे हैं। ग्लेशियर पिघलने से पानी का बहना बढ़ रहा है, ऐसे में बाढ़ की आशंका रहती है। आने वाले वर्षों में जल स्तर बढ़ने की आशंका है। जल स्तर 2040 या 2050 तक बढ़ेगा और उसके बाद घटने लगेगा। नदियों को अभी जो अतिरित्तफ़ पानी मिल रहा है, वह नहीं मिल पाएगा।

अब एक ही बड़ा समाधान है। जैसा कि पेरिस समझौता हुआ था, उसमें यह शामिल था कि हमें तापमान वृद्धि को रोकना है। इस सदी के अंत तक हम अगर तापमान वृद्धि को लगभग 1-5 डिग्री तक रोक लेते हैं, जो कि 1856 के आसपास था, तब भी यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। वातावरण में तापमान मुख्य रूप से धूल और ब्लैक कार्बन की वजह से बढ़ रहा है। अभी सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या हम ब्लैक कार्बन उत्सर्जन को सीमित कर पाएंगे? यह लोकल नहीं, ग्लोबल स्तर का काम है। हमें पहाड़ों की भी चिंता करनी चाहिए, जो जंगल कट रहे हैं, उनकी वजह से स्थानीय स्तर पर तापमान बढ़ता है। यह बात छिपी नहीं है कि पेड़ तापमान को सोखते हैं। जब पेड़ कट जाते हैं, तब तापमान सोख्ने का भार भूमि पर आ जाता है। इससे तापमान बढ़ता है। स्थानीय स्तर पर हम जगह बनाने या पत्थर तोड़ने के लिए विस्फोट भी करते हैं। विस्फोट और निर्माण में मशीनों का उपयोग होता है, जो डीजल से चलती हैं, जिससे स्थानीय स्तर पर कार्बन उत्सर्जन बढ़ता है। इसके अलावा जो धूल बनती है, वह भी प्रदूषण और तापमान बढ़ाती है। बहरहाल, अभी ज्यादा जरूरी है कि हम ताजा त्रसदी के स्रोतों को जानने की कोशिश करें। दो-चार दिन या सप्ताह भर का समय लगेगा। अभी सबसे बड़ा सवाल है कि वीडियो अगर देखे, तो बर्फ, पत्थर के साथ बहुत ज्यादा पानी भी आया है। यह पानी कहां से आया है, हम इसे समझने की कोशिश कर रहे हैं।