प्रदूषण नियंत्राण पर निराशाजनक रवैया


उत्तर भारत में वायु प्रदूषण वेफ बढ़ते प्रकोप वेफ कारण लोगों की सेहत वेफ लिए भयंकर स्थिति पैदा हो गई है, लेकिन उससे निजात मिलने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही है। इसका एक कारण सरकारी तंत्रा की घोर उदासीनता हैं शायद इसी रवैये वेफ चलते बीते दिनों शहरी विकास मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति की ओर से प्रदूषण को लेकर बुलाई गई बैठक में कई विभागों वेफ अधिकारी पहुँचे ही नहीं। सरकारी तंत्रा वेफ ऐसे रवैये वेफ लिए एक हद तक वेंफद्र सरकार भी जिम्मेदार हैं इस समिति में 30 संसद सदस्य भी हैं, लेकिन बैठक में समिति वेफ अध्यक्ष सहित वुफल चार सदस्य ही पहुँचे। इस रवैये की आलोचना ही की जा सकती है, लेकिन सारा दोष इस समिति पर भी नहीं मढ़ा जा सकता, क्यांेंकि जिनहें प्रदूषण से निपटने में राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी चाहिए वे उसका परिचय देने से इन्कार कर रहे हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि प्रति वर्ष अक्टूबर और नवंबर वेफ महीने में जब मौसम बदलता है तब पराली का धुआँ, धूल वेफ कण या वाहनों वेफ उत्सर्जन से वातावरण इस कदर प्रदूषित हो जाता है कि लोगों वेफ लिए सांस लेना तक मुश्किल हो जाता हैं चूँकि वायु प्रदूषण को लेकर कोई भी राजनीतिक दल संजीदा नहीं दिखता इसलिए समय वेफ साथ स्थिति लगातार विकराल होती जा रही हैं पिछले वुफछ वर्षों में उच्चतम न्यायायलय की डांट-पफटकार और एनजीटी की सख्ती वेफ बाद जो कदम उठाए गए हैं उससे स्थिति मेें थोड़ा-बहुत तो सुधार आया है, लेकिन उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। सच्चाई यही है कि मीडिया में तमाम चर्चा और आम लोगों में जागरूकता वेफ बाद भ्ीा ऐसे कदम नहीं उठाए जा सवेंफ हैं जिससे वायु प्रदूषण पर लगाम लगती दिखे।
अक्टूबर में जब उत्तर भारत वेफ तापमान में कमी आनी शुरू होती है तभी पंजाब और हरियाणा में पराली जलनी शुरू होती है। इस पराली का धुआँ, सड़कों की धूल, वाहनो का उत्सर्जन आदि मिलकर आसमान में स्माॅग पैदा करते हैं। यह स्माॅग या तो तेज हवा से दूर होता है या पिफर बारिश से। वायुमंडल को दूषित करने में पराली दहन एक बड़ा कारण है। मूलतः यह पराली धान एक बड़ा कारण है। मूलतः यह पराली धान की पफसल का अवशेष होती है। पंजाब और हरियाणा वेफ किसान इसे जलाना पसंद करते हैं। वे वर्षों से ऐसा करते चले आ रहे हैं। पंजाब और हरियाणा में जैसे-जैसे धान का रकबा बढ़ बढ़ रहा है, वैसे-वैसे पराली जलने से पर्यावरण को होने वाला नुकसान भी बढ़ रहा है। पराली जलाने का काम पंजाब, हरियाणा वेफ साथ-साथ पाकिस्तान वेफ पंजाब प्रांत में भी होता है। चूँकि सर्दियाँ आते ही पश्चिम की तरपफ से हवा चलने लगती है इसलिए पाकिस्तान से लेकर पंजाब, हरियाणा में जलने वाली पराली का सारा धुआँ दिल्ली और आसपास वेफ आसमान पर छाकर स्माॅग का रूप ले लेता है। 
जैसे हाल वेफ समय में पंजाब और हरियाणा में धान की खेती का रकबा बढ़ा है वैसे ही दिल्ली और आसपास किस्म-किस्म वेफ निर्माण कार्यों मंै तेजी आई है। इसवेफ चलते निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल की मात्रा बढ़ी है। इसी वेफ साथ पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले वाहनों वेफ उत्सर्जन की मात्रा में भी वृ(ि हुई है। इसकी वजह यही है कि दिल्ली-एनसीआर में आबादी का घनत्व ज्यादा होना है। दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण का एक कारण दशहरे और दिवाली में पटाखों का इस्तेमाल भी है। हालाँकि धीरे-धीरे उनका इस्तेमाल कम हो रहा है, लेकिन बेहतर होगा कि उनका इस्तेमाल और कम किया जाए।
हालाँकि वायु प्रदूषण जितना दिल्ली को त्रास्त करता है उतना ही उत्तर भारत वेफ अन्य शहरों को भी, लेकिन दिल्ली वेफ प्रदूषण की ही चर्चा ज्यादा होती है। उच्चतम न्यायालय हो या एनजीटी अथवा वेंफद्र सरकार, उनकी ओर से तभी सव्रिफयता दिखाई जाती है जब दिल्ली एनसीआर का प्रदूषण खबरांे का हिस्सा बनता है। पता नहीं क्यों यह देखने से इन्कार किया जा रहा है कि पंजाब और हरियाणा में पराली जलना इसलिए कम नहीं हो रहा है, क्योंकि किसान धान की खेती करना पसंद कर रहे हैं।
इसका कारण मुफ्रत बिजली वेफ कारण किसान भूजल का जमकर दोहन करते हुए धान की पफसल इसलिए उगाते हैं, क्योंकि उसकी सरकारी खरीद का भरोसा रहता है। पराली जलाने का सिलसिला इसलिए भी नहीं थम रहा, क्योंकि उसवेफ निस्तारण वेफ सही उपाय नहीं किए जा सवेफ हैं।
समझना कठिन है कि हमारे नीति-नियंता इससे अनजान क्यों बने रहे कि पराली का धुआँ पर्यावरण को घातक क्षति पहुँचा रहा है? चूँकि किसानों को खेत खाली करवेफ उस पर गेहूँ बोने की जल्दी रहती है इसलिए वे पराली जलाना बेहतर समझते हैं। पराली न जलाने वेफ एवज में किसानों को एक निश्चित राशि देने की माँग न तो पंजाब सरकार पूरी कर सकी और न ही हरियाणा सरकार। वे वेफन्द्र सरकार का मुँह देखती रहीं। इस वर्ष हरियाणा ने तो पराली दहन रोकने वेफ लिए जब तक वुफछ कदम उठाए तब तक तमाम पराली जल चुकी थी। पंजाब सरकार एक तरह से हाथ पर हाथ धरे बैठी रही।
हालांकि वायु प्रदूषण को लेकर शहरों में जागरूकता आई है, लेकिन ग्रामीण भारत में स्थिति जस की तस है। यह सही है कि मोदी सरकार वेफ आने वेफ उपरांत एलपीजी सिलेंडर का वितरण बढ़ाए जाने वेफ कारण चूल्हों का इस्तेमाल कम हुआ है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में अभी भी कोयले और लकड़ी का इस्तेमाल खाना बनाने में किया जा रहा है। बेहतर हो कि प्रदूषण से बचने वेफ लिए वैसी ही ठोस पहल हो जैसी एक समय सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिल्ली में हुई थी और उसवेफ इसवेफ तहत दिल्ली में सीएनजी बसों को अनिवार्य करने वेफ साथ कारखानों को बाहर किया गया था।
एक समय था जब दिल्ली-एनसीआर में सरकारों वेफ साथ तमाम पर्यावरणविद् भी दूषित होते पर्यावरण की अनदेखी ही कर रहे थे। यह तब था जब पराली को प्रदूषण की वजह बताया जा रहा था। दैनिक जागरण इसमें अग्रणी था। वायु प्रदूषण को लेकर आँखें तब खुलीं जब राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी वेफ दौरान दिल्ली वेफ पर्यावरण को लेकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने चिंता जतानी शुरू की। इसी वेफ बाद दिल्ली की मुख्यमंत्राी शीला दीक्षित ने यह कहना शुरू किया कि वायु प्रदूषण का कारण हरियाणा और पंजाब में पराली जलना है। प्रदूषण पर लगाम लगाने वेफ लिए दिल्ली सरकार ने इस वर्ष भी सम-विषम योजना पर अमल किया, लेकिन यह योजना एक सीमा तक ही प्रभावी दिखती है। इसका एक कारण इस योजना से दोपहिया वाहनों को बाहर रखा जाना है। ऐसे आधे-अधूरे उपाय राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को ही प्रकट करते हैं। दुर्भाग्य से यह कमी राज्य सरकारों और उनकी विभिन्न एजेंसियों वेफ साथ वेंफद्र सरकार में भी दिखती है। उन्हें यह समझने की सख्त जरूरत है कि प्रदूषण नियंत्राण वेफ लिए उनकी ओर से बहुत वुफछ किया जाना शेष है।