आपदाएँ और सिवुफड़ता पर्यावरण

 


आपदाओं का आना ध्रती वेफ अस्तित्व वेफ साथ ही शुरू है। यह भी कहा जा सकता है कि हमारी पृथ्वी का जन्म ऐसी ही किसी एक घटना वेफ चलते ही हुआ था। प्रावृफतिक आपदाओं का आना जैसे कोई रहस्य की बात नहीं रही है। वैसे इन आपदाओं में व्यापक पैमाने पर होने वाला नुकसान भी किसी से छिपा नहीं है। यह बात और है कि जान-माल वेफ नुकसान को हम तुरंत देख लेते हैं, लेकिन आपदाओं वेफ चलते होने वाली परिस्थितिकीय तबाही और पर्यावरणीय असंतुलन को हम अनदेखा करते चले आ रहे हैं। यह अनदेख्ी बाद में विस्पफोटक रुख् तस्वीर वेफ रूप में सामने आती है। जैसा कि नेपाल वेफ भूकम्प वेफ बाद भूस्खलन वेफ चलते अवरु( हुई काली गंडकी नदी वेफ चलते दिखाई दिया। वुफछ सदी पहले आने वाली आपदाओं और आज की आपदाओं की प्रवृफति प्रवृत्ति में जमीन-आसमान का अंतर आ चुका है। तब जे प्रावृफतिक आपदाएँ आती थीं, उसमें जान-माल का नुकसान कम होता था। चूँकि उन आपदाओं में इंसानी कारगुजारियों का सहयोग नहीं होता था, इसलिए पारिस्थितिकीय और पर्यावरणीय की क्षतिपूर्ति हो जाती थी।
अगर पारिस्थितिकीय का अर्थ समझें तो किसी खास समय में खास जगह में जितनी भी जीवित चीजें होती हैं, उनका प्रत्येक वेफ साथ जो भी कार्य-व्यवहार होता है, वे जिस भी वातावरण में निवास करते हैं, यह सब किसी पारिस्थितिकीय तंत्रा में समाहित होते हैं। उदाहरण वेफ लिए पूरे दिन वेफ अन्तर्गत सूर्य की रोशनी में होने वाला परिवर्तन, महीने भर वेफ दौरान समुद्री लहरों की उँफचाई में बदलाव और वर्ष भर में मौसम का बदलाव।
विस्तृत रूप से समझें तोµ
तंत्रा में गड़बड़ी जब कोई घटना किसी पारिस्थितिकीय तंत्रा की मौजूद स्थिति बिगाड़ देती है तो उसे पारिस्थितिकीय गड़बड़ी होना कहते हैं। यह किसी सीमित दायरे में भी हो सकती है या पिफर व्यापक स्तर पर भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है। इसवेफ परिणाम अल्पकालीन और दीर्घकालीन दोनों हो सकते हैं।
प्रमुख कारकः प्रावृफतिक गड़बड़ियों वेफ कारण प्रावृफतिक ताकते हैं। इनमें मौसम, भूविज्ञान और जैविक उठापटक शामिल होती है। आग, बाढ़, वायु, बीमारी, भयानक तूपफान, कीटों का हमला, ज्वालामुखी गतिविध्यिाँ, सूख, लम्बे समय तक हिमयुग और भूकम्प इसवेफ प्रमुख प्रकार है।
उदाहरण: कल्पना कीजिए किसी परिस्थितिकी में मौजूद सभी चूहें एक संव्रफामक बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं, ऐसे में यह बीमारी उनकी संख्या को य तो एकदम कम कर देती है या पिफर उस क्षेत्र में उनका वजूद मिट जाता है। इस गड़बड़ी का परिणाम पूरे तंत्रा में अनुभव होता है। चूहें को अपनी खुराक बनाने वाले जीवों को नई दशाओं के अपनाने पर विवश होना पड़ता है।
नुकसान वैफसे? जब किसी पारिस्थितिकी तंत्रा मंे कोई आपदा आती है तब वहाँ तबाही का मंजर होता है। पेड़-पौध्े समाप्त हो जाते हैं। जीव-जन्तुओं को अपने पुराने घर में दरबदर होना पड़ता है, कभी-कभी ऐसी भी स्थिति आती है कि जब उस क्षेत्रा या भूखण्ड पर कोई अन्य वन्य जीव ना हो। हालांकि यह स्थिति अस्थायी होती है। अगर बारीकी से निरीक्षण किया जाए तो आपदा वेफ पश्चात् किसी पारिस्थितिकीय तंत्रा में खुशहाली वेफ पूफल भी खिले देखे गये हैं। क्योंकि किसी स्वस्थ पारिस्थतिकी में यह गुण निहित होता है कि वह किसी गड़बड़ी का स्वयं शीघ्रत से उपचार कर लेती है। और वुफछ समय पश्चात् उस तंत्रा की स्थिति पूर्व जैसी हो जाती है। वहीं पादप और जीव प्रजातियाँ वहाँ पुनः अपना आशियाना बना लेते हैं।
सहायक है प्रावृफतिक गड़बड़ीः किसी पारिस्थितिकी वेफ लिए प्रावृफतिक रूप से होने वाली गड़बड़ी नई चीज नहीं है। ध्रती वेफ अस्तित्व वेफ साथ ही यह पारिस्थितिकी और प्राजातियाँ को आकार देती है कि आकस्मिक गड़बड़ी को अपने में ढालना पारिस्थितिकी की खूबी है।
मानव जनित गड़बड़ियाँ देखा जाए तो सभी गड़बड़ियाँ प्रावृफतिक नहीं होती। आज किसी पारिस्थितिकी में दिखने वाली अध्किांश गड़बड़ी मानव वृफत्यों वेफ चलते हो रही हैं। प्रवृफति से बढ़ती इंसानी छेड़छाड़ वेफ चलते आपदाएँ कहर ढोने से परहेज नहीं कर पा रही है। इसलिए अब जान माल वेफ साथ पारिस्थितिकीय और पर्यावरणीय तबाही व्यापक स्तर पर हो रही है। घटना वेफ तुरंत बाद जान-माल का नुकसान तो हमें दिख जाता है लेकिन तबाही से हम अनभिज्ञ रहते हैं, जो वुफछ समय जैसे महीने साल या दशक कर पश्चात् विकराल रूप में, हमारे समक्ष चुनौती देती हुई खड़ी होती है, जैसे नेपाल त्रासदी वेफ एक महा पश्चात् ये ज्ञात हुआ कि नदी का जमा पानी एक और आपदा को न्यौता दे रह है। आनन-पफानन में भारत और नेपाल वेफ कई क्षेत्रों में बाढ़ से बचने वेफ लिए कदम उठाये जाने लगे... लेकिन यह शुव्रफ कब तक होता रहेगा...?
आपदाएँ हमें सब सिखाती है। हमसे कहाँ चूक हुई? जब कोई प्रावृफतिक आपदा आती है तब इस पर चर्चाएँ गर्म होती है, वुफछ दिनों तक जारी भी रहती हैं और पर हम कोई सबक नहीं लेते?
भूकम्प विशु( प्रावृफतिक घटना है तथ इससे होने वाले सभी प्रकार वेफ दुष्प्रभावें को हम तुरंत नक्कार कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं, लेकिन यह आध्ी-अध्ूरी सच्चाई है। भूकम्प का पूर्वानुमान संभव नहीं हो पाया है और इससे होने वाले नुकसान का पता लगाना तो कठिन काम है क्योंकि पूर्व में ऐसा भी हुआ है कि भूकम्प की तीव्रत किसी क्षेत्रा विशेष वेफ सीस्मिक जोन से कहीं अध्कि थी। जैसा कि 1993 वेफ लातूर भूकम्प में हुआ। यह कहना ठीक है कि भूकम्प वेफ प्रावधनों की अनदेखी तो प्रावृफतिक नहीं हो सकती। आज आपदाओं की संख्या और उनकी पुनरावृत्ति में इजापफा हुआ है। लगभग अस्सी प्रतिशत आपदाएँ हाइड्रो मेटोरोलाॅजिकल है अर्थात उनक संबंध् जलवायु परिवर्तन से है और जलवायु परिवर्तन वेफ लिए मानव जिम्मेदर है। आपदाएँ वैफसी भी हों उनका प्रभाव तो पड़ता ही है।
आपदा का प्रभाव
यूरोपियन स्पेस एजेंसी वेफ अनुसार 25 अप्रैल को नेपाल में आये भूकम्प वेफ पश्चात् काठमांडु घाटी करीब एक मीटर उफपर उठ गई। उनवेफ अनुसार काठमांडु घाटी का 50-120 किमीú क्षेत्रापफल एक मीटर उफपर गया है। जीपीएस सर्वे से भी पुष्टि हुई है कि भूकम्प वेफ पश्चात् घाटी की उँफचाई 1338 सेमी. से 80 सेमी. से बढ़कर 1338.8 मी. हो गई है। यानि कि काठमांडु अब समुद्र तल से 80 सेमी. और उँफचा हो गया है। इसवेफ विपरीत माउंट एवरेस्ट एक इंच सिवुफड़ गया है। और इसका उत्तरी हिस्सा मूल उँफचाई से वुफछ घट गया हैं यह इसलिए हुआ क्योंकि इसवेफ नीचे स्थित ध्रती का हिस्सा उफर्जा निकलने वेफ कारण ढीला पड़ गया।
काठमांडु घाटी वेफ इस तरह की आपदा से अध्कि प्रभावित होने की आशंका रहती है। क्योंकि इसवेफ 200 मीú नीचे काली मिट्टी की परत है। जोकि प्रागैतिहासिक झील का अवशेष है इसलिए भूकम्प से इस क्षेत्रा वेफ सबसे अध्कि थरथराने की आशंका है।
भौगोलिक दृष्टि से भूकम्प वेफ दौरन काठमांडु वेफ 120 किमीú पूर्व की ओर स्थित पफाल्ट क्षतिग्रस्त हो गया। इसवेफ चलते गोरख लामजुंग क्षेत्रा, बूढ़ी गंडकी घाटी और गनेश् हीमल में भीषण तबाही हुई।
हिमालय वेफ व्रफमिक विकास वेफ दौरन कई नदियाँ अपने प्रवाह वेफ विपरीत दिशा में मुड़ने को विवश हुई। इससे प्रवाह की लम्बाई में बढ़ोतरी हुई। वुफछ बड़ी नदियाँ जैसे अरुण हिमालय की मुख्य ध्ुरी से इतर उत्तर की ओर कट गई है। चूँकि नदियों वेफ प्रवाह में परिवर्तन तत्कालीन रूप से नहीं बल्कि लम्बी अवध् िेमें दिखाई देता है। सव्रिफय थ्रस्ट पफाल्ट हिमालय प्रफंट वेफ 5-10 डिग्री उत्तर में दिखाई देता है। गोरखा क्षेत्रा में 15 किमी. नीचे भूकम्प की गहराई इसी टूटन पर दिखती है। पफाल्ट वेफ साथ अध्कितम 4-5 मी. पट्टी क्षतिग्रस्त हुई है। लेकिन पफाल्ट ने सतह को नहीं तोड़ा।
उपरोक्त साक्ष्य वेफ परिणामों से हमें समझना होगा कि पृथ्वी और उसवेफ अवयवों की निश्चित सीमाएं है। वे जनसंख्या दबाव, प्रदूषण और अति दोहन को सहन नहीं कर पाते इसलिए चेतावनी वेफ रूप में उनका आर्तनाद आपदाओं और सिवुफड़ते पर्यावरण वेफ रूप में दिखता है। इसलिए जिम्मेदार नागरिक और देश होने वेफ नाते हमको ये सुनिश्चित करना होगा कि जनसंख्या बोझ, कार्बन डाई आक्साइड, मीथेन और नाइट्रस आॅक्साइड वेफ अतिशय उत्सर्जन को रोकते हुए अपनी सीमाओं की अतिव्रफमण नहीं करेंगे। हमको अपनी व्यवस्था का वर्तमान खाका और भविष्य का प्रारूप इस प्रकार निर्मित करना होगा, जिसमें सभी पक्षों की पीड़ा का प्रतिबिंब हो अन्यथा प्रवृफति नई आपदा वेफ दस्तक देने तक अपनी पीड़ा से कराहती  रहेगी।