पिफर खतरे की घंटी

जलवायु परिवर्तन और ग्लोंबल वार्मिंग की बात इतनी ज्यादा हो चुकी, इतनी चिंताएँ जताई जा चुकीं है कि अब तो कई बार इसकी चर्चा में भी संकोच लगता है। खतरे का ताजा इशारा विश्व बैंक की रिपोर्ट में है, जिसवेफ अनुसार जलवायु परिवर्तन भारतीय अर्थव्यवस्था वेफ लिए बड़ा खतरा बनकर उभरने वाला है। 'दक्षिण एशियाई हाॅट स्पाॅट: तापमान का असर और जीवन का स्तर का बदलाव' शीर्षक वाली यह रिपोर्ट बताती है कि जलवायु परिवर्तन वेफ असर से 2050 तक भारत की जीडीपी को 2.8» का नुकसान हो सकता है। जाहिर सी बात है, इसका कारण तापमान और वर्षा-चव्रफ का प्रभावित होना होगा। जिसका सीधा संबंध वृफषि उपज और इंसानी सेहत से है, जो दूरगामी असर वेफ तहत तब तक हमारी आधी वेफ लगभग आबादी को घेरे में ले चुका होगा। 
विश्व बैंक रिपोर्ट भले ही अभी आई हो, खतरा तो पुराना हैं एचएसबीसी बैंक ने भी वुफछ माह पहले अपनी रैंकिंग में भारत को जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा खतरा बताया था, जिसमें पाकिस्तान, पिफलीपींस और बांग्लादेश वेफ नाम भारत वेफ बाद थे। भारत वेफ संदर्भ में दोनों रिपोर्ट चिंतित करने वाली हैं। दोनों वेफ निष्कर्ष कमोबेश समान है और इनवेफ अनुसार सर्वाधिक प्रभावित मध्य, उत्तरी और उत्तर-पश्चिम इलाका होगा, क्योंकि ये इलावेफ जलवायु परिवर्तन वेफ प्रति सर्वाधिक संवेदनशील हैं। यानी उत्तर-प्रदेश, बिहार, मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और महाराष्ट्र वेफ लिए खतरे की घंटी , जहाँ सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है और जिनकी अर्थव्यवस्था ही वृफषि आधारित है जाहिर है, इसवेफ कारण कहीं सूखा, तो कहीं बाढ़ वेफ हालात पैदा होंगे, जो पहले से ही इन आपदाओं से ग्रस्त इन राज्यों वेफ लिए चिंता की बात होगी। इसका असर जनजीवन वेफ साथ ही पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ना स्वाभाविक है।
यह तो मानना ही पड़ेगा कि जिस तरह हम लगातार हालात की अनदेखी करते गए हैं, खामियाजा भी हमें ही भुगतना होगा। ग्लोबल वार्मिंग वेफ मीटर पर भारत लगातार डेंजर जोन में बना हुआ है, लेकिन तमाम चेतावनियों वेफ बावजूद हम नहीं चेते। मौसम बिगड़ने को कभी अल नीनो बताकर भूल गए, तो कभी वुफछ और। संकट दूर होते ही सब वुफछ भूलना हमारी पिफतरत में जो है। यही कारण है कि इस पुरानी आशंका का भी हम पर कोई असर नहीं दिखता कि यही इंसानी पिफतरत रहीं, तो अगले 50 सें सौ सालों में धरती का तापमान इतना बढ़ जाएगा कि हम वुफछ नहीं कर पाएँगे। हम भूल जाते हैं कि इसवेफ लिए वैज्ञानिक कारण ही नहीं, हमारी अपनी जीवनशैली भी कम दोषी नहीं है। हमने वन काटे, घरों में आंगन क्या पौधों की क्यारियाँ भी खत्म कर दीं। गाँवों से तालाब खत्म हो गए। शहर वंफव्रफीट वेफ जंगल बनते गए। अब तो हाईवे वेफ किनारे भी हरियाली नहीं दिखती। दिल्ली में अभी जिस तरह मकान खड़े करने वेफ लिए पेड़ काटने का जन-विरोध हुआ, उसवेफ जरूर संवेफत अच्छे हैं। अदालती हस्तक्षेप वेफ बाद ही सही, जिस तरह सरकार ने पैफसला पलटा है, उसमें एक नजीर है। मानवक तो यह कहते हैं कि एक पेड़ काटने वेफ पहले दस पौधें रोपे जाएँ, लेकिन दस पौधे रोपने की जगह भी हमने छोड़ी है क्या? पेड़ हम यहाँ काटते हैं, पौधारोपण कहीं और होता है। यह पर्यावरण संतुलन वेफ लिहाज से कितना कारगर है? हम अब भी बहुत वुफछ कर सकते हैं।