हम शहरों वेफ सपफाई अभियान में लगे हैं, लेकिन देश का सबसे बड़ा कचराघर रेल पटरियों वेफ आसपास होता है।
कहते हैंे कि भारतीय रेल में इंसान नहीं, बल्कि देश वेफ सुख-दुख, समृ(ि-गरीबी, मानसिकता-मूल व्यवहार जैसी कई मनोवृत्तियां सपफर करती हैं। भारतीय रेल 66 हजार किलोमीटर से भी अध्कि वेफ रास्तों वेफ साथ दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा नेटवर्वफ है, जिसमें हर रोज 12,000 से अध्कि यात्राी रेल और कोई 7,000 मालगाड़ियां शामिल हैं। अनुमान हैं कि इस नेटवर्क में हर रोज कोई दो करोड़ 30 लाख यात्राी सपफर करते हैं तथा 265 लाख टन सामान की ढुलाई होती है। यह पूरी प्रणाली एक बानगी है कि हमारे देश में स्वच्छता अभियान नारों-संकल्प से आगे बढ़कर वास्तविकता वेफ ध्रातल पर कहां खड़ा है? दुखद है कि यह नेटवर्वफ पूरे देश की रेल पटरियों वेफ किनारे गंदगी, वूफड़े और सिस्टम की उपेक्षा की तस्वीर प्रस्तुत करता है। कई जगह तो प्लेटपफार्म की अतिव्रफमण, अवांछित गतिविध्यिों व वूफड़े का ढेर बने हुए हैं।
देश की राजधनी दिल्ली से आगरा वेफ रास्ते दक्षिणी राज्यों, सोनीपत, पानीपत वेफ रास्ते पंजाब, गाजियाबाद की तरपफ से पूर्वी भारत, गुड़गाँव वेफ रास्ते जयपुर की ओर जाने वाले किसी भी रेलवें टैªक को दिल्ली शहर वेफ भीतरर ही देख लें, तो जाहिर हो जाएगा कि देश का असली कचराघर तो रेल पटरियों वेफ किनारे ही है। सनद रहे कि ये सभी रास्ते विदेशी पर्यटकों वेफ लोकप्रिय रूट है और जब दिल्ली में प्रवेश से 50 किलोमीटर पहले से ही पटरियों की दोनों तरपफ वूफड़े, गंदे पानी, बदबू का अंबार दिखता है, तो उनकी निगाह में देश की वैफसी छवि बनती होगी? इन रास्तों पर रेलवे टैªक से सटी हुई झुग्गियाँ, दूर-दूर तक खुले में शौच जाते लोग उन विज्ञापनों को मुँह चिढ़ाते है, जिनमें स्वच्छता अभियान की उपलब्ध्यिों वेफ गुणगान होते हैं।
रेल पटरियों वेफ किनारे की कई-कई हजार एकड़ भूमि अवैध् अतिव्रफमण की चपेट में है। इन पर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त भू-मापिफयाओं का कब्जा है, जो वहां रहने वाले गरीब, मेहनतकश लोगों से वसूली करते हैं। इनमें से बड़ी संख्या में लोगों वेफ जीविकोपार्जन का जरिया वूफड़े बीनना या कबाड़ी का काम करना ही है। ये पूरे शहर का वूफड़ा जमा करते हैं, उसमें से अपने काम का सामान छांटकर बेच देते हैं और बाकी को रेल पटरियों वेफ किनारे ही पेंफक देते हैं, जहाँ ध्ीरे-ध्ीरे गंदगी वेफ टीले बन जाते हैं।
पटरियों वेफ किनारे जमा कचरे में खुद रेलवे का भी बड़ा योगदान है। खासकर शताब्दी, राजधनी जैसी उन गाड़ियों में, जिसमें ग्राहक को अनिवार्य रूप से तीन से आठ तक भोजन परोसने होते हैं। इनका पूरा भोजन पैक्ड और एक बार इस्तेमाल होने वाले बर्तनों में ही होता है। लेकिन अपना मुकाम आने से पहले खान-पान की व्यवसथा संभालनें वाले कर्मचारी बचा भोजन, बोतल पैकिंग सामग्री वेफ बड़े-बड़े थप्पे चलती टेªन से पटरियों वेफ किनारे ही पेंफक देते हैं। यदि हर दिन एक रास्ते पर दस डिब्बों से ऐसा कचरा पेंफका जाए, तो जाहिर हे कि एक साल में उस वीराने में प्लास्टिक जैसी नष्ट न होने वाली चीजों का अंबार लग जाएगा। कागज, प्लास्टिक, धतु जेसे बहुत से वूफड़े को तो कचरा बनने वाले जमा करवेफ रीसाइकलिंग वालों को बेच देते है।ं सब्जी वेफ छिलके व खाने-पीने की चीजंें वुफछ समय में सड़-गल जाती है। इसवेफ बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है। यह समस्या सिर्पफ महानगरों वेफ आसपास ही नहीं, पूरे टैªक पर लगभग हर जगह होती है। यहाँ तक कि गांवों और जंगलों में भी।
राजधनी दिल्ली हो या पिफर दूरस्थ कस्बे वेफ रेलवे प्लेटपफार्म, निहायत गंदे, भीड़भाड़ भरे, अव्यवस्थित और अवांछित लोगों से भरे होते हैं जिसमें भिखारी से लेकर अवैध् वेंडर और यात्रियों को विदा करने आए रिश्तेदारों से लेकर भांति-भांति वेफ लोग होते हैं। जितने की सपफाई क्षमता है, उससे ज्यादा भीड़ यहाँ जुटती है। इतनी भीड़ रेलवे की सपफाई वेफ सीमित संसाध्नों को तहस-नहस कर देती है। वुफछ साल पहले बजट में रेलवे स्टेशन निगम वेफ गठन की घोषणा की गई थी, जिसने रेलवे स्टेशन को हवाई अड्डे की तरह चमकाने वेफ सपने दिखाए थे। वुफछ स्टेशनों पर काम हुआ भी, मगर जिन पटरियों पर रेल दौड़ती है, जिन रास्तों से यात्राी रेलवे व देश की सुंदर छवि देखने की कल्पना करता है, उसवेफ उ(ार वेफ लिए रेलवे वेफ पास न तो कोई रोड-मैप है और न ही कोई परिकल्पना।
इन पटरियों से दूर है स्वच्छता अभियान का सपफर