पूर्व सांसद और पूर्व वेंफद्रीय सचिव
ध्ीरे-ध्ीरे ही सही, पूरी दुनिया ने एक आम सहमति से जलवायु परिवर्तन वेफ संकट से निपटने की ओर कदम बढ़ाने शुरू कर दिए हंै।
राॅबर्ट स्वान की इस पंक्ति को याद करना जरूरी हैµयह सोच हमारी पृथ्वी वेफ लिए सबसे बड़ा खतरा है कि कोई दूसरा इसे बचा लेगा। कई वैज्ञानिक रिपोर्ट यह इशारा करती है कि ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन वेफ मौजूदा खतरे की वजह मानवीय गतिविध्यिाँ हैं, इसलिए इससे निपटने की जवाबदेही भी मनुष्यों की ही होनी चाहिए। बान की मून वेफ शब्दों मेंµजलवायु परिवर्तन किसी सीमा से बंध नहीं है, यह नही देखता कि कौन अमीर है और कौन गरीब, या कौन बड़ा और कौन छोटा। इसलिए इसे हम वैश्विक चुनौती कहते हैं, जिससे निपटने वेफ लिए सभी देशों वेफ एक साथ आने की जरूरत है। ऐसे ही तर्वफ दुनिया वेफ 195 दुनिया को पेरिस में एक साथ ले आए।
पेरिस में जिस समझौते पर सहमति बनी है, वह जलवायु परिवर्तन को मानव समाजों और इस ग्रह वेफ लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और अचल खतरा मानता है। इस खतरे की मार कम करने वेफ लिए जरूरी यह है कि वैश्विक तापमान का स्तर, औद्योगिक क्रांति युग वेफ पहले वेफ दौर से भी दो डिग्री सेल्सियस कम रखना, पिफर आगे इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस तक कम करना। 1970 से 2004 तक ग्रीनहाउस गैसों वेफ उत्सर्जन में खतरनाक 70 पफीसदी की वृ(ि हुई है, जबक 1880-2012 वेफ दौरान वैश्विक तापमान 0.85 डिग्री सेल्सियस बढ़ा हैं इस वजह से दुनियाभर में मौसम से संबंध्ति कई तरह वेफ बदलाव हुए हैं, जिससे पारिस्थितिकीय तंत्रा पर खतरा बढ़ रहा है। ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्री जल-स्तर में वृ(ि, गर्मियों की तेज तपिश, पौधें और जानवरों की विविध्ताओं में बदलाव, समय से पूर्व पौधें में पूफल आना जैसे मौसम वेफ कई प्रभाव हमारे सामने आ रहे है। पेरिस समझौते में सभी देशों ने तय किया है कि ग्रीन हाउस गैसों वेफ सर्वाध्कि उत्सर्जन का लक्ष्य जितनी जल्दी हो सवेफ। उतनी जल्दी पा लिया जाए और पिफर इससे तेज कमी की जाए।
जलवायु परिवर्तन बहु-आयामी मुद्दा है। विज्ञान व तकनीक, सामाजिक, आर्थिक व व्यापार, राजनीति व वूफटनीति इसवेफ महत्वपूर्ण पहलू है। इन सबका आपस में गुंथा होना जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित देशों वेफ लिए सर्वमान्य समाधन की राह जटिल बनाता है। जलवायु परिवर्तन से निपटने वेफ लिए पहला गंभीर प्रयास यूएनएपसीसीसी यानी द यूनाइटेड नेशंस पे्रफमवर्वफ कन्वेंशन आॅन क्लाइमेट चेंज माना जाता है, जिस पर 1992 वेफ रिओ पृथ्वी सम्मेलन में 150 से अध्कि देशों ने कार्बन उत्सर्जन कम करने को लेकर तैयार क्योटो प्रोटोकाल को भी मंजूर किया। बाद में कोपनेहेगन समझौते ;2009द्ध में औद्योगिक रूप से विकसित देशों ने विकासशील देशो की जरूरतों को देखते हुए वर्ष 2020 तक 100 अरब डाॅलर संयुक्त रूप से जुटाने का वादा किया। हालांकि इस वादे को लेकर देशों में मतभेद रहे हैं।
वैज्ञानिकों की मानें, तो यदि वर्तमान दर से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता रहा, तो ध्रती का औसत तापमान पांच डिग्री सेल्सियसतक बढ़ सकता है। 1970 वेफ दशक में ही येन यूनिवर्सिटी वेफ प्रोपेफसर विलियम नाॅरदौस ने अपने शोध् पत्रा में यह चेतावनी दी थी कि वैश्विक तापमान मौजूदा औसत तापमान से दो या तीन डिग्री सेल्सियस ज्यादा बढ़ रहा है। बाद में आईपीसीसी ने भी अपनी रिपोर्ट में दो डिग्री सेल्सियस तक की वृ(ि का लक्ष्य तय करने पर जोर दिया। लिहाजा, अन्य समझौतों की तरह पेरिस में भी दो डिग्री का लक्ष्य तय किया गया है।
जलवायु वार्ता में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा विकसित देश बनाम विकासशील देशों द्वारा की जाने वाली ग्रीनहाउस गैंसों का उत्सर्जन है। भारत और चीन जैसे विकासशील देशों पर ठीकरा पफोड़ते हुए पश्चिमी देश कार्बन उत्सर्जन में कमी करने की वकालत करते हेैं, जो देश वेफ सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी पर आधरित होना चाहिए। लेकिन इसमें इस तथ्य की अवहेलना कर दी जाती है कि उत्सर्जन का मौजूदा स्तर पश्चिम वेफ नव-विकसित देशों द्वारा किए गए बेतहाशा औद्योगिक विकास का परिणाम है। वर्ष 1850 से उत्सर्जन संबंध्ी आंकड़े खुलासा करते है कि उत्सर्जन में कमोवेश एक तिहाई हिस्सेदारी अमेरिका की है, जबकि यूरोप और अन्य विकसित देश 45 पफीसदी जवाबदेह रहे हैं। इसी आधर पर विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन की गणना जनसंख्या वेफ आधर पर करने की बात कहते हें। सुखद है कि पेरिस में इसका ख्याल रखा गया।
टाटा इंस्टीट्यूट आॅपफ सोशल साइंस का अनुमान है कि आज भी भारत महज तीन प्रतिशत ही उत्सर्जन करता है। इसी तरह, सालभर में औसतन एक भारतीय 1.6 टन कार्बन डाई-आॅक्साइड छोड़ता है, जबकि एक अमेरिका 16.4 टन, जापानी 10.4 टन और यूरोपीय 7.4 टन सालाना उत्सर्जन वेफ जिम्मेदार है। विश्व का औसतन प्रति व्यक्ति उत्सर्जन सालाना 4.9 टन है। इन सबवेफ बावजूद एक जिम्मेदार राष्ट्र वेफ तौर पर भारत ने ग्रीनहाउस गैसों वेफ उत्सर्जन को कम करने वेफ लिए कई स्वैच्छिक और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिब(ताओ में अपनी सहमति दी है। राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास वेफ तहत हमने 30 जून, 2008 को जलवायु परिवर्तन पर नेशनल ऐक्शन प्लान तैयार किया, जिसवेफ तहत राष्ट्रीय सौर मिशन, राष्ट्रीय संवधर््ित उफर्जा दक्षता मिशन, राष्ट्रीय स्थाई आवास मिशन, राष्ट्रीय जल मिशन जैसे आठ अभियानों पर खासा जोर दिया जा रहा है। इसवेफ साथ ही कार्बन उत्सर्जन को अवशोषित करने वेफ लिए भारत ने वर्ष 2030 तक अध्किाध्कि जंगल लगाने का भी वादा किया है। इतना ही नहीं, मौजूदा पंचवर्षीय योजना ;2012-17द्ध में भी कोपेनहेगन समझौते वेफ संदर्भ में उत्सर्जन कम करने और अक्षय उफर्जा की क्षमता 3,00,000 मेगावाट बढ़ाने का लक्ष्य तय किया गया हैं हाल ही में पेरिस में पेश राष्ट्रीय स्तर पर निर्धरित लक्ष्य आईएनडीसी ;इंटेंडेट नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन्सद्ध में भी भारत ने कई अन्य लक्ष्यों वेफ साथ कार्बन उत्सर्जन गहनता को वर्ष 2030 तक 2005 वेफ स्तर की तुलना में सकल घरेलू उत्पाद वेफ मुकाबले 33-35 प्रतिशत तक घटाने की बात कही है।
बहरहाल, भारत अपने वादों की तरपफ गंभीरता से कदम बढ़ा रहा है। यह दिखता भी है। इसलिए क्लाइमेट ऐक्शन टेªकर ने भी भारत वेफ प्रस्ताव को अमेरिका की तुलना में कापफी बेहतर और यूरोपीय संघ व चीन से थोड़ा कमतर बताया हैं पेरिस समझोते में ववर्ष 2023 से हर पांच वर्ष में प्रगति की समीक्षा करने और साथ ही, समानता सुनिश्चित करने के लिए विकसित देशों को 2020 तक विकासशील देशों को सालाना 100 अरब डाॅलर की मदद करने को बाध्य किया गया हैं हालांकि देखने वाली बात यह होगी कि विकसित हो रहे देशों में यह रकम या उफर्जा प्रौद्योगिकी किस तरह से पहुंचती है। बेशक पेरिस समझौते में वुफछ कमियां है। मगर इसमें क्लाइमेट जस्टिस यानी पर्यावरण न्याय की बात कही गई है जोसुखद है। प्रधनमंत्राी नरेंद्र मोदी ने सही कहा है कि पेरिस समझौते में न कोई विजेता है, और न किसी की हार हुई। पर्यावरण को लेकर न्याय की जीत हुई और हम सब एक हरित भविष्य पर काम कर रहे हैं।
जलवायु न्याय की डगर पर